8 महीने की प्रेगनेंट पत्नी को लेकर गाजियाबाद से दिल्ली तक 4 अस्पतालों में भटकते रहे, आखिरकार 7वें दिन मौत ही मिली

लापरवाही ने सिर्फ मेरी पत्नी की जान ही नहीं ली बल्कि उसके पेट में आठ महीने से सांस ले रहे मेरे बच्चे की भी जान ले ली। बीते 9 दिनों ने मेरी पूरी जिंदगी बदलकर रख दी है। मेरा सबकुछ खत्म हो गया है।

मोनिका आठ माह की गर्भवती थीं। वे अपने होने वाले बच्चे को लेकर बहुत उत्सुक थीं।

यह कहते-कहते राजीव का गला भर आया। कुछ देर के लिए फोन पर दोनों ओर से चुप्पी रही। फिर बोले, 28 मई को पता चला कि मोनिका को टाइफाइड हो गया है।

हीमोग्लोबिन भी कम हो गया था। आठ महीने की प्रेगनेंट थी तब।

राजीव दिल्ली के शहादरा में रहते हैं और पत्नी का इलाज गाजियाबाद के यशोदा अस्पताल में चल रहा था।

राजीव कहते हैं, डॉक्टर के कहने पर मैंने 29 मई को उसका कोरोना टेस्ट करवाया। 30 मई की शाम रिपोर्ट आई। पॉजिटिव थी वह।

अस्पताल वालों ने कहा हमारे यहां कोरोना का इलाज नहीं होता इसलिए आप किसी और अस्पताल में चले जाइए।

मैंने एक-एक कर अस्पताल में फोन लगाना शुरू किया। दिल्ली सरकार ने जो लिस्ट दी थी, सभी अस्पताल के नंबर थे उसमें।

रात में 1 बजे तक मैं फोन लगाता रहा लेकिन सभी अस्पताल एडमिट करने से मना करते रहे।

जहां फोन लगाता सिर्फ यही जवाब मिल रहा था कि, हमारे यहां बेड फुल हो चुके हैं आप कहीं और भर्ती करवा दीजिए। कहीं कुछ बात नहीं बनी तो 30 तारीख की रात 1 बजे मैं अपने छोटे भाई के साथ पत्नी को लेकर गुरु तेग बहादुर अस्पताल (जीटीबी) पहुंचा।

राजीव पत्नी को लेकर जीटीबी अस्पताल पहुंचे थे, लेकिन यहां उन्हें एडमिट ही नहीं किया गया।

अस्पताल पहुंचे तो डॉक्टर बोले सैम्पल दीजिए यहां फिर से कोरोना की जांच होगी। सैम्पल के लिए हम दूसरे वॉर्ड में गए। वहां जाकर पता चला अभी तो तीन दिन के सैम्पल पेंडिंग हैं।

सैम्पल लेने वाले ने कहा अभी सैम्पल लेकर रखने की भी जगह नहीं बची है। मैंने बोला आप ये लिखकर दे दो ताकि मैं डॉक्टर को दिखा दूं और वो मेरी पत्नी को एडमिट कर लें।

उनका लिखा कागज लेकर हम दोबारा पहले वॉर्ड में पहुंचे तो डॉक्टर बोले की आप अपनी पेशेंट को एलएनजेपी अस्पताल ले जाइए क्योंकि यहां तो जगह नहीं है।

ये लगभग रात तीन बजे की बात है। थक हारकर हम पत्नी को लेकर वापस घर आ गए। रात साढ़े तीन से सुबह 7 बजे तक मैं अलग-अलग प्राइवेट अस्पतालों में फोन लगाता रहा। मुझे लगा शायद कोशिश करूं तो कहीं जगह मिल जाए।

लेकिन हर जगह यही जवाब मिला कि बेड खाली नहीं है। किसी किसी अस्पताल ने तो ये भी कहा कि अभी हमें कोरोना के इलाज करने का अप्रूवल सरकार से नहीं मिला है।

एक अस्पताल से पूछा तो बोले, आपने पहले हमारे यहां इलाज नहीं करवाया है इसलिए अब यहां भर्ती नहीं कर पाएंगे।

मैक्स अस्पताल से पता चला कि एक बेड खाली हुआ है। बोले, आप आ जाइए। सुबह साढे नौ बजे थे, तारीख थी 31 मई। पत्नी को लेकर मैं वहां पहुंचा।

उन्होंने सारी जानकारी ली। मैंने बताया कोरोना रिपोर्ट पॉजिटिव आई है। हीमोग्लोबिन भी कम है। आठ महीने का गर्भ है।

यह सब सुनने के बाद एक सीनियर डॉक्टर आए और बोले, सॉरी हम आपके पेशेंट को नहीं ले सकते क्योंकि बेड नहीं है। जब मैंने बोला कि मुझे फोन पर बताया था कि बेड है, इसलिए ही मैं आया। तो उन्होंने मानने से इंकार कर दिया।

यहां से हम मोनिका को एलएनजीपी अस्पताल ले आए। दो घंटे औपचारिकताएं चलती रहीं। फिर कुछ देर बाद उसे कॉमन रूम में शिफ्ट कर दिया।

राजीव का कहना है कि एलएनजेपी अस्पताल में बरती गई लापरवाही के चलते ही पत्नी की मौत हुई।

हैरानी की बात ये थी कि अगले चौबीस घंटे पत्नी का कोई ट्रीटमेंट ही नहीं हुआ। हां, रात में एक बार कोई आया उसने बच्चे के दिल की धड़कन देखी और चला गया।

मैंने डॉक्टर से कहा भी कि, पत्नी को कोई देखने नहीं आया। उसका इलाज नहीं हो रहा है। तो बोले कि हम हमारे प्रोसीजर के हिसाब से काम कर रहे हैं। आप हमें मत बताइए।
उसे दो बार एक से दूसरे वॉर्ड में शिफ्ट किया, इस दौरान वह अपना सामान खुद यहां से वहां ले जा रही थी। कॉमन वॉर्ड में पंखा नहीं था और काफी गंदगी फैली थी।

इसी बीच मैंने एक दूसरे प्राइवेट हॉस्पिटल में दस हजार रुपए एडवांस जमा कर दिए और उन्हें कहा कि एक भी बेड खाली हो तो प्लीज मुझे बताइएगा।

एक जून की रात को उसकी तबियत बहुत ज्यादा खराब हो गई। फिर उसे आईसीयू में शिफ्ट कर दिया। वहां एसी लगा था तो उसे थोड़ी राहत मिली। अगले दिन उसकी तबियत थोड़ी ठीक हुई।

राजीव कहते हैं, यह हमारा पहला बच्चा होता। हम महीनोंं से नौवे महीने के इंतजार में थे।

रात को उसका फोन आया की बहुत तेज प्यास लगी है और कोई पानी नहीं दे रहा। वह कह रही थी कि उससे बेड से उठा नहीं जा रहा है।

तब मैं घर पर था। अस्पताल को फोन किया तो किसी ने बात नहीं सुनी। रात को दस बजे मैं पत्नी को पानी देने अस्पताल पहुंचा।

भीतर जाकर इंचार्ज को बताया भी कि मैं शहादरा से वहां सिर्फ पत्नी को पानी पिलाने आया हूं। उन्होंने मुझे तो अंदर नहीं जाने दिया लेकिन पत्नी के पलंग तक पानी पहुंचा दिया। तब तक उसे प्यास से तड़पते तीन घंटे हो चुके थे।

3 तारीख का दिन यूं ही निकल गया। उसके अगले दिन यानी 4 जून को शाम को डॉक्टर ने उसे एक इंजेक्शन लगाया। मैंने उससे वीडियो कॉल पर बात की तो वो ठीक लग रही थी।

पत्नी की मौत की खबर ने राजीव को पूरी तरह तोेड़ दिया था।

12 बजे मैं घर लौट आया। रात को 3 बजे मेरे पास फोन आया कि आपकी पत्नी की हालत बहुत बिगड़ गई है, उसे वेंटिलेटर पर शिफ्ट कर रहे हैं।

4 बजे तक मैं अस्पताल पहुंच गया। अस्पताल वाले बोते कितनी देर की जिंदगी है कह नहीं सकते। सुबह आठ बजे बोले, हम आपकी वाइफ को बचा नहीं सके।

मैंने पूछा मेरा बच्चा? तो बोले मां और बच्चे दोनों की मौत हो गई। दोपहर 12 बजे मेरी पत्नी की बॉडी एम्बुलेंस में रखकर अस्पताल वाले शमशान घाट ले गए।

राजीव का कहना है कि हॉस्पिटल स्टाफ पीपीई किट में होता था फिर भी उन्होंने पत्नी को टच तक नहीं किया।

राजीव और मोनिका की ढाई साल पहले ही शादी हुई थी। ये उनका पहला बच्चा था। बच्चे को लेकर कितने सपने देखे थे। लेकिन अस्पताल की इस लापरवाही ने उनका सबकुछ खत्म कर दिया है।

राजीव और मोनिका की शादी ढाई साल पहले ही हुई थी।

फिलहाल राजीव और उनका परिवार क्वारैंटाइन है। उनके सैम्पल जांच के लिए गए हैं। अब तक रिपोर्ट नहीं आई है।



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