उत्तराखंड के सुदूर पूर्वी छोर पर जहां भारत और तिब्बत की सीमाएं मिलती हैं, वहां हिमालय की तलहटी पर करीब दर्जनभर गांव बसे हैं। ऐसे गांव जिनका इतिहास किसी उपन्यास जैसा काल्पनिक लगता है। व्यास घाटी में बसा गर्ब्यांग गांव इन्हीं में से एक है।
यह गांव इतने दुर्गम क्षेत्र में बसा है कि यहां पहुंचने के लिए कठिन पहाड़ी पगडंडियों पर दो दिन पैदल चलना होता है। हालांकि, दुर्गम होने के बाद भी गर्ब्यांग कभी बेहद संपन्न हुआ करता था। इसे ‘छोटा विलायत’ और ‘मिनी यूरोप’ कहा जाता था। गांव में दो-तीन मंजिला मकान हुआ करते थे जिनके बाहर लगे लकड़ी के खम्बों और दरवाजों पर खूबसूरत नक्काशी हुआ करती थी।
दरअसल, 1962 से पहले गर्ब्यांग गांव तिब्बत से होने वाले अंतरराष्ट्रीय व्यापार का केंद्र हुआ करता था। यहीइस गांव की संपन्नता का मुख्य कारण भी था। यूं तो व्यास घाटी के सभी गांव तिब्बत से होने वाले व्यापार में आगे थे, लेकिन सबसे बड़ा गांव होने के चलते गर्ब्यांग की संपन्नता सबसे अलग थी।
इस गांव के रहने वाले नरेंद्र गर्ब्याल बताते हैं, ‘उस दौर में खेम्बू नाम के कोई व्यक्ति गांव में हुआ करते थे। बताते हैं कि वे अपने व्यापार को बढ़ाने के लिए शिप (पानी का जहाज) खरीदने कलकत्ता गए थे। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि जो गांव सभ्यता से पूरी तरह कटा हुआ था, वहां का निवासी अगर सिर्फ़ तिब्बत से होने वाले व्यापार के दम पर शिप खरीदने की हैसियत रखता था तो यह व्यापार कितना व्यापक रहा होगा।’
धारचूला की इस व्यास घाटी में कुल 9गांव पड़ते हैं। इनमें से 7 गांव भारत में हैं जबकि टिंकर और छांगरू नाम के दो गांव नेपाल में पड़ते हैं। ये सभी गांव मुख्य रुप से तिब्बत से होने वाले व्यापार पर ही निर्भर रहे हैं। इनके अलावा यहां की दारमा और चौदास घाटी में बसे गांव भी तिब्बत से होने वाले व्यापार में शामिल रहे हैं लेकिन उनकी भागीदारी व्यास घाटी के गांवों की तुलना में काफी कम रही है।
चर्चित इतिहासकार शेखर पाठक बताते हैं, ‘भारत-तिब्बत व्यापार में एक समय इन गांवों का एकाधिकार हुआ करता था। यहां से मुख्यतः अनाज जाता था और तिब्बत से ऊन, रेशम, पश्मीना आदि आता था जो फिर पूरे तराई के इलाकों में जाया करता था। मांग बहुत अधिक थी और आपूर्ति करने वाले गांव के लोग सीमित थे। इस कारण व्यापार बहुत व्यापक था।’
व्यास घाटी के ये गांव मुख्य भारत से भले ही कटे हुए थे, लेकिन अपने-आप में बेहद समृद्ध थे। संभवतः देश के सबसे समृद्ध गांवों में से थे। लेकिन, 1962 में हुए भारत-चीन युद्ध ने इनसे इनकी समृद्धि छीन ली। भारत-तिब्बत व्यापार बंद हो गया और इसकी सबसे बड़ी आर्थिक मार इन्हीं गांवों पर पड़ी। भारत के मुख्य बाजारों से तो ये गांव पहले से बहुत दूर थे, अब तिब्बत के बाजार से भी ये दूर हो गए।
भारत-चीन युद्ध के पूरे तीन दशक बाद, साल 1992 में यह व्यापार दोबारा शुरू हुआ। लिपुलेख दर्रा एक बार फिर से व्यापार के लिए खोल दिया गया, व्यास घाटी के लोग फिर से तिब्बत जाने लगे लेकिन वो समृद्धि कभी नहीं लौट सकी।
शेखर पाठक बताते हैं, ‘तीस साल में बहुत कुछ बदल गया था। एक पूरी पीढ़ी निकल चुकी थी। व्यापार बंद हुआ तो गांव के लोगों ने बाकी विकल्प तलाश लिए थे। फिर इतने सालों में व्यापार के तरीके भी बहुत ज़्यादा बदल चुके थे। तिब्बत में अब पहले जैसी भूख नहीं थी। चीन वहां बहुत काम कर चुका था और बहुत कुछ पहुंचा चुका था। इस कारण वे पहले की तरह हम पर निर्भर नहीं थे।
1962 से 1992 के दौरान व्यापार पूरी तरह बंद रहा, भारत और तिब्बत दोनों में ही व्यापक बदलाव हो चुके थे। अंतरराष्ट्रीय व्यापार का स्वरूप बदल चुका था, उपभोग का पैटर्न बदल चुका था, बाजार बड़े हो गए थे और उनकी पहुंच गांव-गांव तक होने लगी थी। लिहाज़ा पारंपरिक व्यापार के केंद्र सिमटने लगे थे। इसीलिए कई लोग मानते हैं कि 1992 में भारत-तिब्बत व्यापार का दोबारा शुरू होना व्यापार के नजरिए से उतना अहम नहीं रह गया था, बल्कि इसका सिंबोलिक महत्व ही बचा था जो दोनों देशों के सुधरते हुए रिश्तों की गवाही देता था।
हालांकि, उत्तराखंड के पूर्व मुख्य सचिव और व्यास घाटी के ही रहने वाले एनएस नपलच्याल इस तर्क से सहमत नहीं हैं। वे कहते हैं, ‘व्यापार का दोबारा शुरू होना सिर्फ सिंबोलिक नहीं था। क्षेत्रीय लोगों की यह जरूरत भी थी और उनकी मांग भी। कैलाश मानसरोवर यात्रा इस व्यापार से पहले ही 80 के दशक में दोबारा शुरू की जा चुकी थी। वो अपने-आप में सुधरते रिश्तों का प्रतीक थी।’
एनएस नपलच्याल आगे कहते हैं, ‘व्यास घाटी के गांव आज भी अधिकतर सामान तिब्बत से ही लाते हैं। भवन निर्माण में लगने वाला अधिकतर सामान ऐसा होता है जो गांव वालों के लिए तिब्बत से लाना सस्ता है जबकि धारचूला (भारत) से ले जाना महंगा पड़ता है। इससे पता चलता है कि व्यापार का खुलना सिर्फ प्रतीक तो नहीं कहा जा सकता। ये जरूर है कि व्यापार अब उतना व्यापक नहीं रह गया जितना 1962 से पहले हुआ करता था।’
व्यास घाटी के ये तमाम गांव हाल ही में मोटर रोड से जुड़े हैं। ये वही रोड है जो धारचूला को लिपुलेख दर्रे से जोड़ती है और जिसका कुछ समय पहले ही देश के रक्षा मंत्री ने उद्घाटन किया है। इस रोड के बनने के बाद स्थानीय लोगों में एक नई उम्मीद पैदा हुई है। जो गांव कभी बेहद समृद्ध हुआ करते थे, उनके अच्छे दिन वापस लौटने की उम्मीद है।
बूंदी गांव के रहने वाले रतन सिंह अब भी हर साल तिब्बत व्यापार के लिए जाते हैं। वे बताते हैं, ‘इस साल तो कोरोना के चलते व्यापार बंद ही रहेगा, लेकिन सड़क बन जाने से आने वाले सालों में व्यापार बढ़ने की उम्मीद है। अभी तक हम लोग खच्चरों पर सामान ले जाते थे। यही सामान अब ट्रकों से जा सकेगा। लिपुलेख तक अगर सामान ट्रक से पहुंच गया तो तिब्बत वाली तरफ तो चीन पहले ही सड़क बना चुका है। वहां से तकलाकोट (तिब्बत) बाजार सामान पहुंचना बहुत आसान हो जाएगा।’
अभी लिपुलेख होते हुए जो भारत-तिब्बत व्यापार होता है, उसमें बेहद सीमित उत्पाद ही एक-दूसरे देश से लाए-ले जाए जा सकते हैं। इसके लिए इनकी बाकायदा सूची जारी होती है। मसलन, भारत से कृषि औजार, कंबल, तांबा, कपड़े, साइकल, कॉफी, चाय, चावल, ड्राई फ़्रूट्स, तंबाकू आदि जैसे कुल 36 उत्पाद ही तिब्बत ले जाने की अनुमति है।
इसी तरह तिब्बत से करीब बीस उत्पाद भारत लाए जा सकते हैं जिनमें बकरी, भेड़, घोड़े, ऊन, बकरी और भेड़ की खाल, रेशम आदि प्रमुख हैं। स्थानीय लोगों का मानना है कि अब सड़क बन जाने के बाद संभवतः इस सूची को भी बढ़ाया जाएगा व्यापार का स्वरूप भी बढ़ेगा।
सड़क बन जाने से इलाके की समृद्धि के अन्य रास्तों के भी खुलने की उम्मीद है। चौदास घाटी के निवासी कृष्णा रौतेला बताते हैं, ‘सड़क आने से पर्यटक भी यहांआने लगेंगे। आदि कैलाश से लेकर ओम पर्वत तक, यहां कई ऐसी जगह हैं जो पर्यटकों को आकर्षित करती हैं। स्वाभाविक है उनकी आमद बढ़ेगी तो व्यापार बढ़ेगा, लोग होम स्टे बनाएंगे, दुकानें खुलेंगी और आर्थिक संपन्नता आएगी। ये तो नहीं कह सकते 1962 से पहले वाली समृद्धि लौट सकेगी लेकिन आज की तुलना में स्थितियां बेहतर जरूर होंगी।’
इस सड़क ने स्थानीय लोगों को नई उम्मीद तो दी है, लेकिन कुछ वाजिब चिंताएं भी हैं। यह पूरा इलाका जनजातीय क्षेत्र है और पर्यावरण की दृष्टि से भी बेहद संवेदनशील है। ऐसे में स्थानीय लोगों को यह भी चिंता है कि इस क्षेत्र और यहां के प्राकृतिक संसाधनों का अनावश्यक दोहन न होने लगे।
स्थानीय लोग काफी समय से यह मांग भी करते रहे हैं कि जिस तरह कई दशक पहले यह पूरा इलाका इनर लाइन परमिट क्षेत्र में आता था, उसी तरह इसे दोबारा नोटिफाई किया जाए।
एनएस नपलच्याल कहते हैं, ‘इस क्षेत्र की इकॉलजी और विशेष सांस्कृतिक विरासत को बचाए रखने और आर्थिक शोषण को रोकने के लिए जरूरी है कि इस क्षेत्र में आने के लिए पहले जैसे नियम बनाए जाएं। कुछ दशक पहले तक जौलजीबी से आगे बसे इलाकों में आने के लिए पिथौरागढ़ के ज़िलाधिकारी से इनर लाइन पास लेना होता था। बाद में इनर लाइन पास का यह क्षेत्र सिर्फ छियालेख से आगे तक सीमित कर दिया गया। स्थानीय लोगों की लम्बे समय से मांग है कि पुरानी व्यवस्था वापस लागू की जाए।’
वे आगे कहते हैं, ‘यह इलाका नेपाल और चीन की अंतरराष्ट्रीय सीमा से सटा होने के कारण राष्ट्रीय सुरक्षा की दृष्टि से भी बेहद अहम है। अब सड़क बन जाने के बाद तो यह पहले से भी अधिक जरूरी हो गया है कि यहां चीजें नियंत्रण में रहें। इसके लिए जरूरी है कि पुरानी व्यवस्था लागू हो और जौलजीबी से आगे ही इनर लाइन पास की व्यवस्था बनाई जाए।’
नई सड़क के बन जाने से स्थानीय लोगों में रिवर्स माइग्रेशन की उम्मीद भी बढ़ी है। भारत-तिब्बत व्यापार बंद होने के बाद से ही यहां पलायन तेज हुआ था। स्थानीय लोगों को जनजातीय क्षेत्र होने के चलते आरक्षण का लाभ भी मिला तो सरकारी नौकरियों की तरफ लोग आकर्षित होने लगे। इस कारण गांव से निकलकर शहरों की तरफ आने का चलन बढ़ने लगा।
लेकिन, अब लोगों को उम्मीद है कि सरकारी सेवाएं पूरी कर चुके वे तमाम लोग अपने गांव लौटेंगे जो बेहद दुर्गम होने के चलते पहले ऐसा नहीं कर पाते थे। 1962 से पहले का सुनहरा दौर तो शायद इस घाटी में कभी वापस न आ सके लेकिन वर्तमान की तुलना में एक बेहतर भविष्य की आस यहां लोगों में जरूर पैदा हो गई है।
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