दोपहर के एक बजे हैं। कीर्ति नगर में चूना भट्टी के पास बसी एक झुग्गी बस्ती में रहने वाली विजेता राजभर अभी-अभी नोएडा से वापस लौटी हैं। आज दिल्ली यूनिवर्सिटी में पीएचडी की प्रवेश परीक्षा थी। इसी परीक्षा में शामिल होने विजेता नोएडा गई थी।
कीर्ति नगर के आस-पास बसी झुग्गियों में 25 हजार से भी ज़्यादा परिवार रहते हैं। लेकिन, लाखों की इस आबादी में शायद विजेता अकेली ऐसी लड़की हैं जो पीएचडी करने के सपने के इतना क़रीब पहुंच सकी हैं। जिस झुग्गी बस्ती में वे रहती हैं, वहां ऐसे लोगों की संख्या मुट्ठी भर से ज़्यादा नहीं जो ग्रेजुएट हों। पोस्ट ग्रेजुएशन करने वाले तो उंगलियों पर गिने जा सकते हैं।
विजेता अगर यह प्रवेश परीक्षा पास कर लेती हैं तो कीर्ति नगर की झुग्गी से निकल कर यह कीर्तिमान रचने वाली वे पहली लड़की होंगी। इस परीक्षा की लिए विजेता ने काफी मेहनत भी की है। लेकिन, परीक्षा से ठीक एक हफ्ता पहले, जब वो अपना सारा ध्यान सिर्फ़ परीक्षा की तैयारी में लगा देना चाहती थी, तभी उन्हें खबर मिली कि सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली में 48 हजार झुग्गियों को तोड़ डालने का आदेश दिया है जिनमें उनकी झुग्गी भी शामिल हो सकती है।
विजेता कहती हैं, ‘बचपन से आज तक कभी हमारे पास पढ़ाई के लिए अलग कमरा नहीं रहा, इसलिए हमें बहुत सारे शोर में ही पढ़ाई करने की आदत पड़ गई। यहां पीछे ही रेलवे की पटरी है जहां से दिन भर में न जाने कितनी ट्रेन गुजरती हैं। इनके शोर ने भी कभी परेशान नहीं किया।
लेकिन जब से झुग्गियां टूटने की खबर मिली है, दिमाग़ में एक अलग ही तरह का शोर उठा हुआ है। कई सवाल मन में उठ रहे हैं। झुग्गियां भी नहीं रहेंगी तो हम कहां जाएंगे। इस मनोदशा में पढ़ाई भी नहीं हो रही।’
विजेता जैसी ही मनोदशा से दिल्ली की झुग्गियों में रहने वाले लाखों लोग इन दिनों गुजर रहे हैं। दिल्ली शहरी आश्रय सुधार बोर्ड (डूसिब) के अनुसार पूरी दिल्ली में करीब 700 सौ पंजीकृत झुग्गी बस्तियां हैं जिनमें 4 लाख से ज्यादा झुग्गियां हैं। इनमें रहने वाले लोगों की संख्या 20लाख से भी अधिक बताई जाती है।
यदि इस आंकडे में गैर पंजीकृत झुग्गियों को भी जोड़ लिया जाए तो यह संख्या और भी ज्यादा बढ़ जाती है। इनमें से हजारों झुग्गियां रेलवे लाइन के किनारे बसी हुई हैं जिनमें रहने वाले लाखों लोग अब अपने भविष्य को लेकर आशंकाओं से घिर गए हैं।
झुग्गियां तोड़ने का यह आदेश हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने एमसी मेहता बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया केस की सुनवाई करते हुए दिया है। इस आदेश में कोर्ट ने कहा है कि दिल्ली में रेलवे की 140 किलोमीटर लम्बी लाइन के सेफ्टी ज़ोन में जितने भी अतिक्रमण हैं, उन्हें तीन महीने के अंदर ध्वस्त किया जाए।
इस सेफ्टी जोन में आने वाली 48 हजार झुग्गियों को तोड़ने का आदेश देते हुए जस्टिस अरुण मिश्रा की पीठ ने कहा है कि इस आदेश पर कोई भी राजनीतिक हस्तक्षेप न किया जाए। साथ ही कोर्ट ने कहा है कि इस आदेश पर अगर कोई भी न्यायालय अंतरिम आदेश जारी करता है तो ऐसा आदेश मान्य नहीं होगा।
इस आदेश ने सिर्फ़ झुग्गियों में रहने वाले लाखों लोगों को ही नहीं बल्कि दिल्ली सरकार के अधिकारियों को भी हैरत में डाल दिया है। डूसिब के एक अधिकारी कहते हैं, ‘मामला सुप्रीम कोर्ट का है इसलिए हम खुलकर कुछ कहने की स्थिति में नहीं हैं। लेकिन यह फैसला बिल्कुल भी व्यावहारिक नहीं है।
ऐसे रातों-रात लाखों लोगों के घर कैसे उजाड़े जा सकते हैं? इन लोगों के पुनर्वास का क्या होगा, इन्हें कहां बसाया जाएगा, इतनी जमीन कहां से आएगी जहां इनका पुनर्वास हो और पुनर्वास के लिए संसाधन और पैसा कौन जारी करेगा, ये सब बातें इतने कम समय में तय नहीं हो सकती।’
दिल्ली में झुग्गियों के पुनर्वास का इतिहास देखें तो यह भी बेहद ख़राब रहा है। सलोनी सिंह मामले में फैसला देते हुए नैशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) ने दर्ज किया है कि साल 2003-04 के दौरान रेलवे ने डूसिब को पुनर्वास के लिए 11.25 करोड़ रुपए दिए थे। लेकिन 4410 झुग्गियों में से सिर्फ़ 257 का ही पुनर्वास किया गया।
कीर्ति नगर में ही रेशमा कैंप नाम की एक झुग्गी बस्ती होती थी। साल 2002 के करीब इस बस्ती के लोगों को रोहिणी में बसाया गया और इस बस्ती को ध्वस्त कर दिया गया। लेकिन आज उस जगह पर पहले से भी ज़्यादा झुग्गियां नजर आती हैं।
इसी झुग्गी में रहने वाले अजय चौधरी बताते हैं, ‘हम भी पहले रेशमा कैंप में ही रहते थे। लेकिन हमारे पास कागज पूरे नहीं थे इसलिए हमें पुनर्वास में शामिल नहीं किया गया और झुग्गियां तोड़ दी गई। हम जैसे कई लोग बेघर हो गए और कई महीनों तक फुटपाथ पर रहे। फिर दस हजार रुपए देकर दोबारा एक झुग्गी डाली। तब से यहीं रहते हैं।'
कीर्ति नगर में एशिया का सबसे बड़ा फर्नीचर मार्केट है। इस पूरे मार्केट की रीढ़ इसके इर्द-गिर्द बसी ये झुग्गी बस्तियां ही हैं। रेलवे लाइन के किनारे बनी इन्हीं छोटी-छोटी झुग्गियों में ये फर्नीचर तैयार होता है और झुग्गी के अधिकतर लोग इसी फर्नीचर मार्केट में कारीगर या लेबर का काम करते हैं।
पिछले 22 साल से यहां फर्नीचर का काम कर रहे राज मंगल विश्वकर्मा कहते हैं, ‘हम जो फर्नीचर बनाते हैं वो पूरे देश में जाता है। दिल्ली के सभी सरकारी दफ्तरों से लेकर संसद और अदालतों तक में यहीं से बना फर्नीचर जाता है। ये सारे नेता, अफसर, जज सभी हमारे बनाए बेड पर सोते हैं और हमारी बनाई कुर्सियों पर बैठते हैं। हम तो अपनी मेहनत और कारीगरी से उनके घर बसाते हैं लेकिन वो अपने फैसलों से हमारे ही घर उजाड़ देते हैं। ‘
दिल्ली में झुग्गी वालों की संख्या इतनी ज्यादा है कि ये इन्हें दिल्ली का सबसे बड़ा वोट बैंक भी कहा जा सकता है। इसलिए इन पर राजनीति भी ख़ूब होती है। चुनावों से पहले जहां आम आदमी पार्टी ने बाकायदा अपने घोषणा पत्र में सभी झुग्गी वालों को पक्के मकान देने का वादा किया था वहीं भाजपा ने ‘जहां झुग्गी वहीं मकान’ जैसे जुमले दिए थे।
लेकिन चुनावों के बाद न तो आम आदमी पार्टी ने इनके लिए कुछ खास किया जिनकी दिल्ली में सरकार है और जिनके अंतर्गत डूसिब जैसे विभाग आते हैं और न ही भाजपा ने कुछ खास किया जिसकी केंद्र में सरकार है और जिसके अंतर्गत रेलवे जैसे मंत्रालय हैं, जिनकी जमीनों पर सबसे ज्यादा झुग्गियां बसी हुई हैं।
कमला नेहरू कैम्प की झुग्गी में रहने वाली नीतू देवी हाथ में एक लिफाफा थामे हुए हमसे मिलती हैं। इस लिफाफे पर ऊपर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तस्वीर छपी है और बड़े- बड़े अक्षरों में लिखा है ‘जहां झुग्गी वहीं मकान।' यह लिफाफा हमारी ओर बढ़ाते हुए नीतू देवी पूरी मासूमियत से कहती हैं, ‘ये देखिए। मोदी जी तो देश के प्रधानमंत्री हैं। वो ही वादा किए थे कि जहां हमारी झुग्गी है, वहीं मकान होगा। फिर क्यों झुग्गी तोड़ने की बात कही जा रही है? क्या सच में हमारी झुग्गी तोड़ दी जाएगी?’
नीतू देवी के इस सवाल पर सेंटर फॉर होलिस्टिक डेवलपमेंट से जुड़े सुनील कुमार अलेडिया कहते हैं, ‘इन झुग्गियों को एक बार में ही तोड़ देना सरकार या अधिकारियों के लिए नामुमकिन नहीं है। ऐसे कई उदाहरण हम लगातार देखते रहे हैं जब रातों-रात झुग्गियां गिराकर हजारों लोगों को एक झटके में बेघर किया गया। शालीमार बाघ का उदाहरण तो अभी ज़्यादा पुराना भी नहीं है। लेकिन कोरोना की महामारी के इस दौर में जब लोगों की आर्थिक स्थिति भी बेहद खराब है, अगर झुग्गी टूटती हैं तो ये लोग कहां जाएंगे और क्या खाएंगे?’
वैसे इस मामले में कुछ लोग पुनर्विचार याचिका दाखिल करने की भी बात कर रहे हैं। अधिवक्ता कमलेश मिश्रा कहते हैं, ‘न्यायालय का ये फैसला तर्कसंगत नहीं है। इस मामले में झुग्गियों में रहने वाले उन लोगों का पक्ष तो सुना ही नहीं गया है जो इससे सबसे ज़्यादा प्रभावित होने जा रहे हैं। ये मामला रेलवे लाइन के आस-पास जमा होने वाले कचरे से संबंधित था।
सरकारी रिपोर्ट ही बताती है कि भारतीय रेलवे खुद सबसे ज्यादा कचरा पैदा करती है। लेकिन इस मामले में अपनी गर्दन बचाने के लिए रेलवे ने झुग्गी वालों पर बात डाल दी और कोर्ट ने झुग्गी वालों को सुने बिना ही हजारों झुग्गियां हटाने का आदेश दे दिया। हम लोग जल्द ही इस मामले में पुनर्विचार याचिका दाखिल करेंगे।’
सम्भव है कि सुप्रीम कोर्ट इस पुनर्विचार याचिका का संज्ञान लेते हुए झुग्गियों को तोड़ने के आदेश पर फ़िलहाल रोक लगा दे या इसे कुछ समय के लिए टाल दे। लेकिन फिलहाल तो कोर्ट के आदेश के बाद झुग्गियों में रहने वाले लाखों लोगों के सामने अस्तित्व का संकट खड़ा हो गया है।
इसी झुग्गी में रहने वाले 26 साल के मिलन कुमार कहते हैं, ‘आज मुंबई में कंगना रनौत के घर का एक हिस्सा टूटा तो सारे देश में उसकी चर्चा है। सारा मीडिया वही खबर दिखा रहा है और कहा जा रहा है कि ये लोकतंत्र की हत्या है। इधर हम जैसे लाखों लोगों के घर उजड़ने को हैं और इस पर कहीं कोई चर्चा ही नहीं है। क्या हम लोग इस लोकतंत्र का हिस्सा नहीं हैं?'
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