सब ‘ठीक-ठाक’ सीटों के लिए लड़ रहे, सरकार तो जुगत और जुगाड़ से ही बनेगी, असली टी-20 तो नतीजों के बाद होगी!

बिहार 2020...। ये अपनी तरह का पहला चुनाव है, जब हालात इतने साफ हैं और चुनाव इतना खुला हुआ कि सबकुछ साफ दिख रहा है। इतना साफ कि सबने अपनी रणनीति भी उसी हिसाब से तय कर ली है। एक-एक लाइन तोल कर, ठोक-बजा कर बोली जा रही है। और जब बिसात पर इतना खुलापन हो, सारे खिलाड़ी इतना संतुलन बरत रहे हों, यह किस करवट बैठेगी, कहना मुश्किल होता है।

पहली बार है, जब ये तय है कि कौन किसके खिलाफ लड़ रहा है। लेकिन, ये तय नहीं कि कौन किसे लड़ा रहा है। मसलन, ये तो तय है कि महागठबंधन और एनडीए खिलाफ लड़ रहे हैं और चिराग पासवान बिहार में एनडीए से बाहर ही नहीं हैं, नीतीश कुमार को सत्ता से बेदखल करने के लिए हर सीट पर उनके खिलाफ हैं।

लेकिन, यह पूरी तरह तय नहीं हो पा रहा कि वो ‘वाकई’ एनडीए से बाहर ही हैं और एनडीए में ‘बड़े भाई’ की असल भूमिका निभा रही भाजपा उनके लिए लचीली नहीं है। यानी, शतरंज की बिसात के काले-सफेद मोहरे भले तय हों, उन काले-सफेद मोहरों के पीछे का स्याह-सफेद साफ नहीं।

बीते कुछ चुनावों पर नजर डालते हैं।

2015 को देखें। तब दो गठबंधनों की लड़ाई थी। बड़े-बड़े चेहरों की लड़ाई थी। लालू-नीतीश साथ थे। सामने नरेन्द्र मोदी थे। लड़ाई हुई। हार-जीत हुई। हालांकि, साथ लड़ने वाले बाद में दुश्मन हो गए। जो एक-दूसरे के निशाने पर थे, दोस्त हो गए। 2010 में नीतीश कुमार के चेहरे और छाया पर चुनाव हुआ। तय हुआ कि नीतीश को फिर से लाना है। वही हुआ भी...। लेकिन इस चुनाव और इससे पहले भी लगभग हर चुनाव का फोकस और भविष्य की तस्वीर भी लगभग तय रहती थी। मतलब ये जीतेंगे तो सत्ता में होंगे, हारे तो उधर ही बैठेंगे। चुनाव के पहले यह नहीं कहा जा सकता था कि चुनाव बाद ये वाला उधर या वो वाला इधर आ ही जाएगा।

लेकिन, यह पहली बार है जब बिहार का चुनाव किसी फोकस के साथ नहीं लड़ा जा रहा। मोटे अर्थों में यह गठबंधनों की नहीं, स्थानीय चेहरों की लड़ाई ज्यादा बन गया है। यानी गठबंधन कम, प्रत्याशी की पहचान ज्यादा काम करेगी। और इस आड़ में गठबंधन के अंदर और गठबंधन के पीछे भी कई गठबंधन टूट-बन रहे होंगे।

दिनारा और जगदीशपुर तो सिर्फ उदाहरण हैं। दिनारा में संघ के कद्दावर नेता और पिछले चुनाव में भाजपा से मुख्यमंत्री का अघोषित चेहरा रहे राजेन्द्र सिंह का सीट एडजस्टमेंट के बाद बिना इस्तीफा दिए लोजपा के टिकट पर चुनाव मैदान में उतरना और भाजपा से ‘कागजी निष्कासन’ के बाद भी उनके सपोर्ट में संघ और भाजपा की फौज का डटे रहना इसी नूराकुश्ती का शानदार नमूना है।

यह चुनाव के दौरान ही नहीं, चुनाव बाद की तस्वीर का धुंधलका भी किसी हद तक छांट दे रहा है। अगर अभी से ही चुनाव बाद के ‘भाजपा-लोजपा’ रिश्ते की चर्चा इतनी मुखर है, तो रिश्तों की सच्चाई को आसानी से समझा जा सकता है। दिनारा से ‘भाजपा बागी’ (दिल से भाजपा और संघ के साथ), कागज पर भाजपा से 6 साल के लिए निष्कासित राजेन्द्र सिंह ने भास्कर से बातचीत में जो कुछ कहा, वह इस पर मुहर लगाने वाला है। यानी बहुत गड्डमड्ड है।

यह भी पहली बार होगा, जब चुनाव शुरू होने से पहले ही तय हो चुका है कि किसी एक दल को बहुमत तो नहीं ही मिलने जा रहा है। और यह भी तय नहीं है कि चुनाव बाद यही गठबंधन सरकार बनाएगा और वो वाला विपक्ष में ही बैठेगा। मतलब, आश्वस्त होकर नहीं कह सकते कि इस गठबंधन का ‘ये वाला’ हिस्सा ‘उस वाले’ हिस्से के साथ एक नया गठबंधन नहीं कर लेगा। लेकिन, यह तय है कि इस चुनाव में ‘सबसे ज्यादा’ सीटों पर लड़ने वाला भी अपने दम पर तो बहुमत नहीं ही ला पाएगा।

अब अगर जमीन के नीचे से कोई 2014 (लोकसभा चुनाव में मोदी लहर) या यूपी का 2012 (अखिलेश लहर) या 2017 (मोदी लहर) निकल आए तो और बात है, जो फिलहाल दूर की कौड़ी लगता है। सच यही है कि कोई इतनी सीट लड़ ही नहीं रहा कि अपने ईंट-गारे से खुद का महल खड़ा कर ले। सबसे ज्यादा सीटों (144) पर राजद यानी तेजस्वी यादव की पार्टी मैदान में है।

कुछ और भी किन्तु-परन्तु हैं। यह चुनाव बड़े चेहरों की लड़ाई भले न रह गया हो, कौन किसके खिलाफ लड़ रहा है और लड़ाई किससे लड़नी है, यह एकदम साफ है। यह नेताओं के बोल-बचन में भी दिख रहा है। तय है कि किसके खिलाफ बोलना है। किसे बचाकर निकल जाना है। यह भविष्य की खिड़की खुली रखने का संकेत है। हालांकि, यह खिड़की चुनाव के टेकऑफ करने से पहले ही इस कदर खुल जाएगी, यह भी पहली बार हुआ है।

चुनावी भाषणों में तल्खी और मिठास के भी अपने-अपने अंदाज हैं। नीतीश हमलावर हैं, लेकिन उनके हमलों में कोई ऐसा नया तीर अभी तक नहीं दिखा जो ‘सबसे बड़े दुश्मन’ तेजस्वी को सीधे घायल कर सके। ‘15 साल’ वाला तीर भी अब भोथरा हो चुका है। इसके विपरीत तेजस्वी ने नीतीश को नालंदा से लेकर कहीं से भी चुनाव लड़ने की चुनौती देकर जैसी आक्रामकता दिखाई है, उसका जवाब आना बाकी है।

हालांकि, तेजस्वी भी अपने भाषणों में सिर्फ नीतीश को निशाने पर लेते हैं। भाजपा या नरेंद्र मोदी की चर्चा तक नहीं कर रहे। शायद इसलिए कि मोदी को निशाने पर लेकर लड़ाई को बेवजह ‘भारी’ और ‘सीधा’ क्यों बनाया जाए। इसमें एक चीज और साफ हो रही है कि नीतीश भले ही बिहार में ‘अलोकप्रिय’ हो गए हों, मोदी की स्वीकार्यता अब भी बनी हुई है। जाहिर है तेजस्वी इस ‘स्वीकार्यता’ को अस्वीकार करने का जोखिम नहीं लेना चाहेंगे। इसके विपरीत नीतीश सीधे तौर पर न तो चिराग के खिलाफ कुछ बोल पा रहे, न कांग्रेस के खिलाफ। मोदी के खिलाफ तो जाने के फिलहाल सारे रास्ते ही बंद हैं। सत्ता में बने रहने का यह भी एक विकार है।

वैसे भी इस चुनाव में अब तक जो सामने आया है, साफ है कि मैदान में उतरे हर नेता के तरकश में क्या और कितना है, यह सबको पता चल चुका है। यह भी पता चल चुका है कि किसी तरकश में अब ऐसा कोई तीर नहीं बचा जो बहुत गहरा वार कर सके और लड़ाई आर-पार में तब्दील कर सके। यानी न तो नीतीश अपने खिलाफ या समर्थन में बनी अच्छी या बुरी तस्वीर में कोई नया रंग भर कर उसे चमका पाने की स्थिति में हैं, न तेजस्वी के पास ऐसा कोई खांचा या सांचा बचा है, जिससे गुजर जाने से उनमें ऐसा कोई अक्स दिखने लगेगा, जो उनकी अब तक की बनी बनाई तस्वीर में कुछ फेरबदल दिखा सके।

वो चाहे युवाओं में उनकी स्वीकार्यता की हां-ना हो या पिता के राज वाले दाग को साफ करने वाला डिटर्जेंट। सच तो यही है कि लड़ाई का असल डिफरेंशिएटर या टर्निंग पॉइंट आना अभी बाकी है। वह किसके भाषण से कब, किसके लिए और किस हद तक असर करेगा, यह इंतजार का मामला है।



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Nitish Kumar Narendra Modi vs Tejashwi Yadav | Here's Bihar (Vidhan Sabha) Assembly Election 2020 Opinion Dainik Bhaskar


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